छंद
1
धरती अरु आकाश हैं ,पंचतत्व का भाग
वायु अग्नि ये जल सभी, हैं इनके सम्भाग
हैं इनके सम्भाग ,न इन बिन जीवन चहके
हरा भरा हर बाग़ ,यहाँ चन्दन सा महके
कह संजय कविराय ,कष्ट ये सारे हरती
देती जीवन दान ,हमारी पावन धरती
संजय कुमार गिरि
2.
फगुवा की रीत चली , मनवा में प्रीत पली
होरी में गोपाल सँग खेल रहीं गोपियाँ।
गोरे गोरे गालन पे, मलते गुलाल श्याम,
नोक-झोंक गोपिन की झेल रहीं गोपियाँ।।
देख पिचकारी भरी ,गोपीन पे भारी पड़ी ।
कान्हा को पीछे पीछे ,ठेल रही गोपियाँ ।।
मन में उदार लिये ,होरी की फुआर लिए ।
हाथों में हाथ डार के ,मेल रही गोपियाँ।।
संजय कुमार गिरि
3.
जिन्दगी है चार दिन ,
कटे नहीं यार बिन !
ऐसी जिन्दगी को तुम, प्यार से संवार दो !
भेद भाव आये नहीं !
घृणा भी समाये नहीं !
ऐसे दोसतों के संग,जिन्दगी गुजार दो !
साम ,दाम भेद लिए
व्हिस्की और रम पिए
ऐसे दोसतों को तुम ,झाड़ू से बुआर दो !!
--संजय कुमार गिरि
4
भारती के लाडलों ने ,भारती की रक्षा हेतु
दुश्मनों से लड़कर ,जान ये गवाई है ।
आन वान शान हेतु ,तिरंगे के मान हेतु
सीने पर खाके गोली ,वीर गति पाई है
जन गण मन गाके ,रूखा सूखा अन्न खाके
वीर सपूतों की कहानी बन के छाई है
बहनों की मांग सूनी ,माताओं की गोद सूनी
तब जाके भारत में ,आज़ादी ये आई है
संजय कुमार गिरि
5.
आर करो पार करो ,दोषियों पे वार करो
जाकर लाहौर अब,गाड़ आओ ये झंडा
बड़े-बड़े बम फेको ,उनके ही घर ठोको
बचने ना कोई पाए , एक अब दरिंदा
घात पे वो घात करे ,विष वाली बात करे ,
मौत के सौदागरों का,वो करते हैं धन्दा
झुकने ना कभी पाए ,जान भले चली जाए
अपने वतन की है ,पहचान तिरंगा
संजय कुमार गिरि